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युवा दिवस पर विशेष : स्वामी विवेकानंद ,


 भारत के महापुरुष एवं सन्यासी स्वामी विवेकानंद जी का प्रभाव सिर्फ भारत तक नही बल्कि विदेशो तक मे उनका प्रभाव था। स्वामी जी के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्ता था। अपने आध्यात्मिक ज्ञान की उष्मा से विश्व के लगभग हर देश को रोशन किया था। साहित्य, वेद और इतिहास के प्रबल विद्वान स्वामी जी ने भारतीय हिंदू धर्म के मूल आधार और संस्कृति की सुगंध को सयुंक्त राज्य अमेरिका और यूरोप तक प्रचार प्रसार किया था।

उनका प्रेरक और उदारवादी व्यक्तितत्व भारत, अमेरिका और यूरोप तक प्रसिद्ध था। उन्होंने अपना समपूर्ण जीवन गरीबो की सेवा करने और भारत का उत्त्थान करने में लगा दिया था।

वह भारतीय विद्वान रामकृष्ण परमहंश के परम प्रिये शिष्य थे और कई सालो तक गुरु के मठ में रहते हुए उन्हें आध्यत्मिक ज्ञान की प्राप्ति हुई थी जिसके बाद उनके नरेंद्रनाथ दत्ता से स्वामी विवेकानंद बनने की शुरुवात हुई।

Information About Swami Vivekananda Life History in Hindi | स्वामी विवेकानंद जी के जीवन का इतिहास

विवेकानंद जी का जन्म और परिवार – Information About Birth & Family

कोलकाता के एक निपुण परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानंद के पिता नाम विश्वनाथ दत्ता और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। उनके माता-पिता ने उनका नाम नरेंद्रनाथ रखा था। इनके पिताजी कोलकाता उच्च नय्यालय में वकील थे और माता एक हाउस वाइफ थी। जिनका मन सिर्फ धार्मिक क्रियाओं में अधिक लगता था। पिताजी विवेकानंद जी को भी एक पढ़ा लिखा कुशल व्यक्ति बनाने के लिए हमेशा उन्हें अंग्रेजी सीखने पर जोर दिया करते थे। परन्तु स्वामी जी का तो ध्यान पढाई में कम और धार्मिक क्रियाओं में ज्यादा रहता था।

बचपन – Childhood Information About Swami Vivekananda in Hindi

तीर्व बुद्धि और बहुमुखी प्रतिभा वाले स्वामी जी पढाई में औसतन दर्जे के थे। बचपन में उन्हें पढ़ाई को लेकर भविष्य की कोई चिंता ना थी और हमेश खेल कूद और दोस्तों के साथ उधम मचाना यह उनकी नित्य क्रिया रहती थी। वह स्कूल में होने वाले सभी खेल और संस्कृतक कर्यकर्मो में अवश्य भाग लेते थे।

स्वामी जी जैसे-जैसे बड़े होते गए उनकी शरारते तो कम होती गई पर पढाई में उनकी रूचि अभी भी ना थी। इसकी अपेक्षा उनका झुकाव धार्मिक क्रियाओं में बढ़ता गया। कभी-कभी तो वह अपनी माँ को रामायण पाठ करता देख उनके समक्ष बैठ जाया करते और रामायण सुनने लगते। रामायण सुनते वक़्त उनका मन भक्तिभाव में रम बेहद प्रसन्न हो जाया करते था। स्वामी जी का मन ईश्वर के प्रति उनका अस्तित्व को जानने और समझने के लिए हमेशा जिज्ञासु रहता था और अपनी माता से अक्सर भगवान से जुड़े प्रश्न किया करते थे।

स्वामी विवेकानंद जी की शिक्षा – Education of Swami Vivekananda in Hindi

स्वामी जी जब 8 साल के थे तो उनके पीताजी ने उनका दाखिला ईश्वर चंद्र विद्यासागर के महानगरीय संस्थान में करवा दिया। जहां वे 1871 – 1877 तक वहीं पढाई करी और 1878 में परिवार सहित रायपुर चले गए। 1879 में परिवार और स्वामी जी वापिस कोलकाता आ गए और प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रवेश परीक्षा में १स्ट डिवीज़न लाने वाले एक मात्र छात्र रहे। इस कॉलेज में उन्होंने खूब मन लगा कर पढाई करि। उन्होंने समाजिक विज्ञान, कला, विज्ञान, धर्म, इतिहास आदि विषयों की साथ उन्होने धार्मिक ग्रंथो रामायण, भगवतगीता, वेद, उपनिषद में भी उनकी काफी रूचि रही।

इसके आलावा उन्होंने शास्त्रीय संगीत में भी शिक्षा ग्रहण करि थी। विलियम हस्ती क्रिश्चन कॉलेज कलकत्ता के प्रिंसिपल ने स्वामी जी की तारीफ में बोलते हुए कहा नरेंद्रनाथ होनहार और तेज है। मैंने अपने जीवन में कई बुद्धिमान बच्चे देखे है पर नरेंदर बुद्धिमान होने का साथ बहुत सहनसील, समझदार, सच्चा और दयालु इंसान है। उसमे जीवन में अपनी एक अलग ही पहचान बनाने की सारी खूबियां है ।

नरेंद्रनाथ दत्ता से स्वामी विवेकानंद बनने का सफर

आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति : ब्रह्मा समाज छोड़ राम कृष्ण परमहंस के शिष्य बने

स्वामी जी बचपन से ही जिज्ञासु और आध्यात्मिक स्वभाव होने के नाते उनके मन में धर्म और भगवान् से जुड़े कई सवाल थे जो इनके मन को हमेशा व्याकुल रखते थे। अपनी इसी आध्यात्मिक चित को शांत करने के लिए ही उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्मा समाज से जुड़े जिसके स्नस्थापक राजाराम मोहन रॉय थे। परन्तु कुछ दिन जुड़े रहने के बाद उन्हें वहां भी उनका मन शांत नहीं हुआ। स्वामी जी की व्याकुलता को देख —— ने इन्हे राम कृष्ण परमहंस से मिलने को सलहा दी।

रामकृष्ण जी बेहद ज्ञानी और आध्यात्मिक विचारो वाले व्यक्ति थे और इनसे मिलने के बाद स्वामी विवेकानंद जी काफी उत्साहित हो गए और रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बना लिए। यहां पर उन्हें पूर्ण रूप से आध्यत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ जिसके बाद विवेकानंद जी उनके प्रमुख और प्रिय शिष्य बन गए। 1885 में एक गंभीर बिमारी के कारण परमहंस जी की मृत्यु हो गई। जिसके बाद स्वामी जी परमहंस जी के नाम से कई संघ, मठ और राम कृष्ण मिशन की स्थापना करि जो आज भी एक्टिव है।

राम कृष्ण परमहंश की मृत्यों के बाद स्वामी जी सन्यासी वस्त्र धारण करे हुए दक्षिण भारत में गुरु की शिक्षाओं का प्रचार प्रसाद करने निकल पड़े। इसी दौरान जब वह भ्रमण पर थे तो उन्हें शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मलेन का भी पता चला। इस धर्म सम्मलेन में दुनिया भर के लगभग हर देश ने भाग लिया थे। स्वामी जी को काफी प्रयास के बाद पहेली बार भारत की और से बोलना का मौका मिल गया और स्वामी जी 31 मई 1893 को करोड़ भारतीय का स्नेह और आशीर्वाद लिए हुए शिकागो के लिए रवाना हो गए।

शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में लोकप्रियता

11 सितम्बर 1893 शिकागो के महा सभा धर्म सम्मलेन में स्वामी जी अपने हाथ में भगवतगीता लिए मंच की और बढे जहां उन्हें यूरोप और अमेरिका के हजारो लोगो को भारत के हिन्दू धर्म और संस्कृति से अवगत करना जरुरी था। क्यूंकि उस समय भारतीय को यूरोप और अमेरिका में बहुत हीन दृष्टि से देखा जाता था। मंच पर पहुंचते ही स्वामी जी ने सभा को सम्भोदित करते हुए सबसे पहले “मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनो” से बोलना आरम्भ किया। इतना कहता ही पूरी सभा में 5 मिनट तक तालियों की गूंज सुनाई देने लगी।

इसके बाद उनके द्वार दिए भाषण को लोंगो ने कई घटना तक बड़े ध्यान पूर्वक सुना जो विश्व प्रसिध रहा। वहां के हर एक अखबार और न्यूज़ में स्वामी जी छा गए। इसके बाद स्वामी जी ने 3 सालों तक अमेरिका में रखकर ही भारतीय के अध्यतम ज्ञान “वेदांत रतन” को विदेशों तक पहुंचाया। कई तरह के सभाएं, लेक्चर व वेदांत सोसाइटी की भी स्थापना करि। इसके पश्चात वह भारत लौट आये और भारत में धार्मिक ज्ञान के प्रचार प्रसार हेतु कई संस्थाओं की स्थापना करि जिनका उद्द्श्ये भारत में सनातन धर्म के ज्ञान का प्रसार, लोगो में समंजस्य स्थापित करना वा गरिबो की सेवा करना था।

राम कृष्ण मिशन की स्थापना एवं उसका उद्श्ये

भारत भ्रमण के दौरान स्वामी जी हर वर्ग से मिलने के बात उन्हें ज्ञात हुआ की भारत के लोगो में आपसी एकता और भाईचारे की काफी कामी है पूरा भारत जाती, वर्ग, धर्म के आधार पर बटा हुआ था। जो भारत की उन्नति में सबसे बड़ा अभिशाप था। स्वामी जी समझ गए की इन कुरित्तियों को समाप्त करने के लिए उन्हें एक व्यापक मिशन के तहत काम करना पड़ेगा। जिसके लिए उन्होंने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर सुन 1897 में बेलूर मठ में राम कृष्ण मिशन का मुख्य केंद्र वा पूरे भारत में कई छोटे बड़े मठ स्थापित किया। ये मिशन कर्मा योग के सिद्धांतो और आधार पर काम करता है जो आज भी उसी प्रकार काम कर रहे है।

प्रसंग - 1

प्रसंग के अनुसार एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो बहुत दुखी लग रहा था. उस व्यक्ति ने आते ही स्वामीजी के पैरों में गिर पड़ा और बोला कि मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं बहुत मेहनत करता हूं, लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाता हूं. उसने विवेकानंद से पूछा कि भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है? मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती हूं, फिर भी कामयाब नहीं हूं.

स्वामीजी उसकी परेशानी समझ गए और उस समय स्वामीजी के पास एक पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा कि तुम कुछ दूर तक मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ इसके बाद तुम्हारे सवाल का जवाब देता हूं.

वह व्यक्ति आश्चर्यचकित हो गया, फिर भी कुत्ते को लेकर निकल पड़ा. कुत्ते को सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामीजी के पास पहुंचा तो स्वामीजी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था,जबकि कुत्ता बहुत थका हुआ लग रहा था.

स्वामीजी ने व्यक्ति से पूछा कि यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया, जबकि तुम तो बिना थके दिख रहे हो?

व्यक्ति ने जवाब दिया कि मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पर चल रहा था, लेकिन कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था. हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है, लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है.

स्वामीजी ने मुस्करा कर कहा कि यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है. तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है. वह ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो.

यही बात लगभग हम पर भी लागू होती है. अधिकांश लोग दूसरों की गलतियां देखते रहते हैं, दूसरों की सफलता से जलते हैं और अपने थोड़े से ज्ञान को बढाने की कोशिश नहीं करते हैं और अहंकार में दूसरों को कुछ भी समझते नहीं हैं जिसकी वजह से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है.

सीख – इस प्रसंग की सीख ये है कि दूसरों से Compression नहीं करना चाहिए और अपने लक्ष्य दूसरों को देखकर नहीं, बल्कि खुद ही तय करना चाहिए.

प्रसंग - 2

स्वामी विवेकानंद अमेरिका में एक पुल से गुजर रहे थे. तभी उन्होंने देखा कि कुछ लड़के नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगा रहे थे.किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था. स्वामी जी ने खुद बन्दूक संभाली और निशाना लगाने लगे. उन्होंने एक के बाद एक 12 सटीक निशाने लगाए. सभी लड़के दंग रह गए और उनसे पुछा- स्वामी जी, आप ये सब कैसे कर लेते हैं? इस पर स्वामी विवेकानंद ने कहा, “जो भी काम करो अपना पूरा ध्यान उसी में लगाओ.”

सीख – जो काम करो, उसी में अपना पूरा ध्यान लगाओ. लक्ष्य बनाओ और उन्हें पाने के लिए प्रयास करो. सफलता हमेशा तुम्हारे कदम चूमेगी.

प्रसंग - 3

स्वामी विवेकानंद एक बार बनारस में मां दुर्गा के मंदिर से लौट रहे थे, तभी बंदरों के एक झुंड ने उन्हें घेर लिया. बंदरों ने उनसे प्रसाद छीनने की कोशिश की,स्वामी जी डर के मारे भागने लगे. इसके बाद भी बंदरों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. तभी पास खड़े एक बुजुर्ग संन्यासी ने विवेकानंद से कहा- रुको! डरो मत, उनका सामना करो और देखो क्या होता है. संन्यासी की बात मानकर वह फौरन पलटे और बंदरों की तरफ बढ़ने लगे. इसके बाद सभी बंदर एक-एक कर वहां से भाग निकले.

सीख – इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली. अगर तुम किसी चीज से डर गए हो, तो उससे भागो मत, पलटो और सामना करो.

प्रसंग – 4

एक बार एक विदेशी महिला स्वामी विवेकानंद के पास आकर बोली- मैं आपसे शादी करना चाहती हूं. विवेकानंद बोले- मुझसे ही क्यों? क्या आप जानती नहीं कि मैं एक संन्यासी हूं? महिला ने कहा, “मैं आपके जैसा गौरवशाली, सुशील और तेजस्वी बेटा चाहती हूं और यह तभी संभव होगा, जब आप मुझसे शादी करें.” स्वामी जी ने महिला से कहा, “हमारी शादी तो संभव नहीं है, लेकिन एक उपाय जरूर है. मैं ही आपका पुत्र बन जाता हूं. आज से आप मेरी मां बन जाओ. आपको मेरे जैसा ही एक बेटा मिल जाएगा.”इतना सुनते ही महिला स्वामी जी के पैरों में गिर गई और मांफी मांगने लगी.

सीख – एक सच्चा पुरूष वह है जो हर महिला के लिए अपने अंदर मातृत्व की भावना पैदा कर सके और महिलाओं का सम्मान कर सके.

प्रसंग – 5

मां की महिमा जानने के लिए एक आदमी स्वामी विवेकानंद के पास आया. इसके लिए स्वामी जी ने आदमी से कहा, “5 किलो का एक पत्थर कपड़े में लपेटकर पेट पर बांध लो और 24 घंटे बाद मेरे पास आना, तुम्हारे हर सवाल का उत्तर दूंगा.” दिनभर पत्थर बांधकर वह आदमी घूमता रहा, थक-हारकर स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला- मैं इस पत्थर का बोझ ज्यादा देर तक सहन नहीं कर सकता हूं. स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, “पेट पर बंधे इस पत्थर का बोझ तुमसे सहन नहीं होता. एक मां अपने पेट में पलने वाले बच्चे को पूरे नौ महीने तक ढ़ोती है और घर का सारा काम भी करती है. दूसरी घटना में स्वामी जी शिकागो धर्म संसद से लौटे तो जहाज से उतरते ही रेत से लिपटकर रोने गले थे. वह भारत की धरती को अपनी मां समझते थे और लिपटकर खूब रोए थे.

सीख – संसार में मां के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील नहीं है. इसलिए मां से बढ़ कर इस दुनिया में कोई और नहीं है.

दोस्तों उम्मीद है आपको यह ब्लॉक पसंद आया होगा आप सभी को युवा दिवस की बहुत सारी शुभकामनाएं और शेयर करें जानकारी को अपने दोस्तों के साथ मित्रों के साथ परिवार जनों के साथ और इसी तरह की अच्छी-अच्छी पोस्ट पढ़ने के लिए जरूर आते रहे हमारे ब्लॉक पर और कमेंट बॉक्स में अपने विचार जरूर साझा करें जल्द ही मिलते हैं अगली पोस्ट के साथ तब तक के लिए नमस्कार😊💐💐💐🙏🏼


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